ऐतिहासिक विदाई से पहले

18 मई को बंगाल चुनाव के नतीजे आएंगे तो अखबारी दिमागों में किस तरह की हेडलाइन्स कुलबुलाएंगी? कुछ उत्साही दिमाग अभी से अनुप्रास अलंकार और व्यंजना के मेल से बनने वाली सुर्खियां तेयार भी करने लगे हैं। राजनीति का सहज दर्शक होने के नाते मेरी दिलचस्पी इस बात में कतई नहीं है कि सीपीएम की हार को पूरे वामपंथ की हार बताया जताया समझाया जाएगा, मैं देखना चाहता हूं कि इसके बाद वाम राजनीति से क्रांति को अगले 50 साल तक स्थगित रखने वाले और वोट पॉलिटिक्स से सुधार की आस रखने वाले किस राह पर जाएंगे। अभी बंगाल में नई सरकार किसकी बनेगी यह 50 50 के साथ गंभीर इंतजार की मांग कर रहा है। क्या इस बीच वाम पर सब तरफ से बात नहीं होनी चाहिए। इस सप्ताह से जनवाणी के एडिट पेज पर इसकी शुरुआत की है। आपकी राय का इंतजार रहेगा।


वाम विदाई का अफसोस यानी बदलते वक्त में कुछ तो नया है

राजनीति
को आंकड़ों और समीकरणों का खेल मानने वाले भूल जाते हैं कि यहां गणित के बजाए रसायन शास्त्र के नियम ज्यादा कारगर होते हैं। बंगाली भविष्य का समीकरण दुनिया के वामपंथी किले के पतन में देख सकते हैं।


पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजे करीब से करीबतर आते जा रहे हैं और उसी रफ्तार से वामपंथ की हार के आलोचकीय कयास भी यकीन में बदलने लगे हैं। 18 मई की शाम कई मायनों में ‘ऐतिहासिक’ होने वाली है। अगर वाम मोर्चा किला बचाए रख पाता है (जो कि मौजूदा रुझानों से लगता नहीं) तो भी और यदि ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस भारतीय राजनीति में ‘वाम विफलता’ का नया मुहावरा रच देती हैं, तो भी। सिंगूर-नंदीग्राम के "आतंक", 34 वर्षीय "कुशासन" और ममतामयी "संघर्ष" के कमजोर तर्कों के सहारे वामपंथ की हार तय करने वाले ‘भोलेपन’ पर हम कुछ देर के लिए चर्चा मुल्तवी रखते हैं और देखते हैं कि आखिर वामपंथ की जगह भरने की लोकतांत्रिक आस हम किससे लगा रहे हैं! ममता बनर्जी से, जो लोकतांत्रिक वाम को हराने के लिए हथियारबंद वामपंथियों के साथ खड़ी हैं, या उस कांग्रेस से, जिसके पहले पतन के साथ ही ज्योति बसु की अगुवाई में राइटर्स बिल्डिंग में लेफ्टफ्रंट ने मजबूत जगह बनाई थी।
भारत के हर राज्य में चुनाव अपनी अलग पहचान और जायके के लिए जाने जाते हैं। बंगाली वोट पॉलिटिक्स का स्वाद जानने वाले इस बात से सहमत होंगे कि रवीन्द्र संगीत की स्वरलहरियों से गूंजने वाले बंगाल में चुनावी धुन राष्ट्रीय राजनीति से ज्यादा ऊंचे स्वर में बजती है। जब पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी, ठीक उसी वक्त बंगाल में सीपीएम ने विकल्प दिया था। लोकतांत्रिक मोहभंग की पहली केंद्रीय आहट के साथ वामपंथी न तो यकायक बंगाल समेत राष्ट्रीय राजनीति में आए थे ओर न ही उनकी विदाई झटके में हुई है। बीते तीन चुनावों से दिखाई दे रहीं वाम किले की दरारें अब ज्यादा साफ हैं और इस चुनाव में हमलावर भी ज्यादा मजबूत हैं।
यहां सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि बंगाल में कांग्रेसी विकल्प तीन दशकों तक राज करता रहा और राष्ट्रीय फलक पर जनता सरकार का करिश्मा तीन साल भी न घिसट सका? जाहिर है ‘आॅपरेशन बर्गा’ अकेला ऐसा कारक नहीं हो सकता, जो वामपंथी नाव को चुनावी लहरों के थपेड़ों से बचाते हुए 34 साल तक अजेय बनाता रह सके। जमीनी काम तो यकीनन हुए हैं, जैसे राजनीतिक भ्रष्टाचार के प्रति साफ समझ, काम के हालात ठीक होना और स्कूली शिक्षा के व्यापक सुधार कार्यक्रम। साथ ही अन्य राज्यों से अलग पहचान के मामले में बंगाल के शहरी केंद्रों को भी देखा जाना चाहिए। बंगाल में बड़े शहरों की संख्या सीमित है। कोलकाता की जनसंख्या जहां 50 लाख से ऊपर है, वहीं दूसरा सबसे बड़ा शहर हावड़ा है, जहां महज 10 लाख की बसाहट है। आबादी का फैलाव तब और ज्यादा साफ हो जाता है, जब देखते हैं कि तीसरा बड़ा शहर सोनारपुर महज 6 लाख की आबादी वाला है। यानी आज भी बंगाल की ज्यादातर आबादी छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में रहती है। वामपंथी बढ़त के लिए जिम्मेदार यह महत्वपूर्ण कारक रहा है।
असल में हमारे महादेश में चुनाव विकल्प की जमीन पर लड़े जाते हैं और विकल्पहीनता के दौर में कम होते ‘लोकतांत्रिक रास्ते’ बंगाली वोटर को ममता या वामदलों में से एक के चयन की ही इजाजत देते हैं। इसके अलावा उनके पास माओवादी अतिवाद है, जो अभी बिखराव के दौर में है। तो क्या बंगाल में वामपंथ ने विकल्प निर्मित नहीं होने दिया, अथवा बंगाल को तीन दशक में इसकी जरूरत ही नहीं थी? यदि हम ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब हासिल कर सकें, तो बंगाल में वामपंथी शासन की विदाई की ऐतिहासिक बेला को समझ सकते हैं। असल में लेफ्टफ्रंट बीते डेढ़ दशक से जिस दुविधा में है, उसकी नींव 77 में ही पड़ गई थी। भारतीय राजनीति के तीन धु्रव भाजपा, कांग्रेस और वाम के संबंधों में साफ है कि भाजपा के लिए कांग्रेस ‘व्यावहारिक शत्रु’ है, जबकि उसकी ‘वैचारिक दुश्मन’ लेफ्ट पार्टियां हैं। यही बात वाम दलों के लिए है। यही वजह है कि वे ‘व्यावहारिक दुश्मन’ कांग्रेस को जब-तब अपनी ‘वैचारिक शत्रु’ भाजपा के खिलाफ सहयोग करते रहते हैं। पहली बार जब यूपीए में विभिन्न वाम दल शामिल हो रहे थे, तो इसी मुद्दे पर वाम दलों में गंभीर मतभेद थे। अंतत: बहुमत ‘व्यावहारिक शत्रु’ को सहयोग की ‘राजनीतिक समझदारी’ पर राजी हुआ। सीपीएम (माले) और माओवादी पोलित ब्यूरो ने इसे उसी समय ऐतिहासिक भूल करार दिया था।
कट्टर वामपंथी समर्थक भी मानकर चल रहे हैं कि वाम दलों की विदाई बेला आ गई है, और वे इसे वामपंथी राजनीति की महत्वपूर्ण घड़ी करार दे रहे हैं। अब यहां से या तो भारत में वाम ताकतें और मजबूत होंगी अथवा वे अपने उस अंधेरे लोक में लौट जाएंगी जहां से ‘हथियारबंद क्रांति’ को जमीन मुहैया होती है। तब क्या मान लिया जाए कि अब चुनावी वाम के बजाए क्रांतिकारी वाम की भूमिका स्पष्ट और तीखी होगी? क्या यह अल्ट्रा रेड के राजनीतिक संरक्षण के दौर की शुरुआत होगी? ममता बनर्जी के पीछे खड़े चेहरों को देखकर तो साफ लगता है कि वामपंथी विदाई बंगाली सियासत का महज एक मोर्चा है। असली लड़ाई यहां से शुरू होती है। बंगाल का भद्रलोक अपनी अलग राह और धीमा चलने के लिए ‘कुख्यात’ रहा है। यह संगीत की विरासत और बाबूगिरी की परंपरा के साथ बनी वह संस्कृति है, जिस पर एक बंगाली गर्व कर सकता है। सोचने-समझने के शौकीन और उसी अनुपात में नए के प्रति उत्सुक ‘सोनार बांगला’ के लिए यह बदलाव का मुनासिब वक्त है। वह प्रयोग कर सकता है। ममता-कांग्रेस-माओवादी गठजोड़ को सत्ता सौंपकर देख सकता है कि क्या वाकई सीपीएमनीत वाम मोर्चा ने उसके साथ तीन दशक लंबा विश्वासघात किया है अथवा राज्य की सत्ता में समाजवादी नीतियों के लिए केंद्र का मुंह ताकना हमारे फेडरल सिस्टम की मजबूरी है।
राजनीति को आंकड़ों और समीकरणों का खेल मानने वाले भूल जाते हैं कि यहां गणित के बजाय रसायनशास्त्र के नियम ज्यादा कारगर होते हैं। बंगाली भविष्य का समीकरण दुनिया के वामपंथी किले के पतन में देखा जा सकता है। अमेरिका ने सोवियत संघ के खात्मे के लिए ओसामा का सहारा लिया था। इसी समीकरण के साथ सीपीएम की सत्ता से बेदखली के लिए माओवादियों के इस्तेमाल की कांग्रेसी साजिश में ममता के उभार को एक परिघटना के तौर पर देखने से बहुत कुछ साफ हो जाता है। लालगढ़ से लौटती फौजों के साथ यह सवाल उछले थे कि अगर माओवादी बंदूक की भाषा ही समझते हैं, जैसा कि सरकार कहती है, तो क्यों नहीं बंगाल, झारखंड, ओडिसा और आंध्रा-छत्तीसगढ़ तक फैले फर्स्ट रेड जोन से उनका सफाया कर दिया गया। जाहिर है कि कांग्रेसी नियंताओं के लिए अभी माओवादियों का इस्तेमाल बचा हुआ है, जिसमें वह ममता बनर्जी के साथ दबाव का सूक्ष्म हथियार चला सकते हैं।
(28 अप्रैल 2011 को दैनिक जनवाणी में प्रकाशित)